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प्रथम सर्ग जनकपुर-प्रवेश १ धीरे, रम्ये, जनक नगरी, सौख्य सम्पत्ति धाम, तेरे वासी सतत रत है ईश-सेवाभिराम कोई दृग्गोचर नर नहीं हो रहा दुष्ट, वाम शान्ते, तेरी सुभग धवला देहली मे प्रणाम । 7 श्रा पेंठी तू, चकितमति, हे, चित्त की वृत्ति मेरी खोई-सी क्यो इधर फिरती दर्शनौत्सुक्य-प्रेरी? खोले आँखे, मुदित मन हो, देख शोभा घनेरी-- रम्ये, होवे हृदय-तल की भावना पूर्ण तेरी । ३ प्राचीरो के सुदृढ गढ को विज्ञ कारीगरो ने- रक्खा है क्यो विलग पुर से, शिल्प-विद्याधरो ने ? क्यो छोडा है नगर-गढ़ के बीच सुस्थान खाली ? कैसी वीथी-परिधि यह है वेदियो से संभाली ? ४ ? 7 ब्रह्म-ज्ञानी जनकपुर की शुद्ध-सी मेखला हे या नारी की मृदुल कटि की धर्म की शू खला है किवा माला जनक-यश की शुभ्र पुष्पो मयी है या लोगो के विमल हिय से गान-धारा बही है ? 2 १३