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तृतीय सर्ग १४३ ? नित एकत्व भाव धारा के चिर वाहक जो राम स्वय,- "भुजीथा त्यक्तेन' मन्त्र के चिर साधक जो राम स्वय,- उन्हे कभी मोहित कर सकती क्या यह स्वार्थ-भाव-माया उनके आगे क्षुद्र, राजपाट की यह घोर विचार शून्यता है यह श्री कैकेयी रानी की, प्रदर्शिनी कर रही आज वे अपने हिय अज्ञानी की अवध के छाया, 1 यह अन्याय, धर्म का नाटक- रचता हुआ, अवध पाया, फैला रहा हमारे गृह में यह अपनी मिथ्या माया, 'सभी फंस गए है इस भ्रम मे, तुम भी भ्रमित हुए, स्वामी । धर्म-विचार, अधर्म-आक्रमण- से अतिक्रमित हुए, स्वामी, शिथिला बुद्धि हुई है, सब जन- किकर्त्तव्यविमूढ उठो धनुर्धर मेरे, तुम क्यो यो वनगमनारूह हुए ? २४१