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1 १० इधर यह 'दक्षिणेन्द्र-द्वार', नव है जनाता चण्ड रवि का खर विभव है विदेही नृपति का यह कीति-दव है जलाता जड अकर्मो का कुरव है । 1 नृपति ने दिशा दक्षिण द्वार वर को- निवेदित है किया इन्द्र प्रवर को , प्रखर सकेत कर, प्रति आर्य नर को- दिखाता कर्म-पथ शर-चाप-धर को । १२ पुनीता सॉझ को वन्दन समय जब, जिधर, मुख फेरती नर नारियाँ सब उधर को दीखता 'यम द्वार' है अब , कि मानो दीखता है विश्व विप्लव । १३ उधर यह पूर्व 'ब्रह्म-द्वार' प्यारा- दिखा उत्पत्ति-तत्त्वो का पसारा- बहाता नव्य रस की गान-धारा इधर 'यम द्वार' ने लय को सँभारा । १४ उधर उत्पत्ति है तो इधर लय है उधर जीवन नवल का यदि प्रणय है,-- इधर तब क्षुब्ध सरिता शान्तिमय है जनक-नगरी, अहो, निर्धान्तिमय है । , 1 ,