पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२३३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय सर्ग यह सयोग-सुधा, अजलि भर मैने, प्रिये, खूब पी है, आँखो मे, हिय मे, रग-रग मे, यह मधु मस्ती भर ली है, सुधा मधुर, हाला की मस्ती- मे, यह विष-प्याला आया, दैवयोग अपने हाथो से विषमय गुल्लाला लाया, तुम्ही कहो ? क्या ऑखे मीचे बैठ रहूँ मै बिना पिये ? होवेगा बदनाम तुम्हारी- मधुशाला का नाम, प्रिये । १०० तुम रस दात्री, मैं मधुपायी, तुम प्याली, मै मतवाला, मै मदिरा, तुम पात्र मनोहर, मै गाहक, तुम मधुशाला, खूब पिलाया मधुरस तू ने ओ मेरी दानिनि, मत हठ कर तू, ले आज गरल यह भर-भर दे, कर दे तू उत्प्राणित मुझको, मेरी झिझक, अरी, हर दे, अये, मत उठा, गरल भरे ये- प्याले, तू सम्मुख धर दे । रानी, बरदे, श्रा, २१६