पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२२६

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ऊम्मिला अजन-जनन-श्रम-कण हरने को कल-कल करता बहा सलिल'; उस प्रभात मे सचराचर को, व्यजन' डुलाने लगा अनिल डग-मग पग धरती सी डरती कुछ-कुछ सिहर-सिहर बहती, देवि, प्रभाती हवा चली थी- जग को सृष्टि-कथा कहती, अनिल, सलिल, जीवन-धारा सब, बह आए जगती तल पे, अथवा होने लगी दान की वर्षा नित भूमण्डल पे । उस प्रभात में, वृक्ष उगे, वा- जग निद्रा उद्ग्रीव हुई, द्रुम-दल फूटे सिहर-सिहर कर, ज्यो गत पीर सजीव हुई, चम्पा, जुही, और चम्बेली अलबेली सी महक उठी मानो कोई मुग्धा, यौवन, मे स्तम्भित हो, बहक उठी, प्रथम बार कलियो ने आखे सृष्टि देखने को खोली, चतुर पारखी ने ज्यो दृग से निज चिन्तामणि-निधि तौली । २१२