पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२१९

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तृतीय सर्ग मानो सहसा मानवता की ऋमिक प्रगति ने सहसा आज छलाग भरी, एक गिरि-शिखर से दूजे पर टाग धरी, कुछ घडियो मे शताब्दियो का विस्तृत पथ तय होवेगा, अयुत योजनो का वह अन्तर लघु अगुलिमय देवि, आज का यह यात्रा-दिन, शुभ, विप्लव-सचारी मगलकारी अविकारी यह प्रलयकारी है । होगा, क्षण ७२ निर्मित आज हो रहा है, सखि, जगती का इतिहास नया, छिटक रहा है भूमण्डल मे यह उत्क्रमण-विकास नया; आज फैलने वाला है, सखि, उन्नत ज्ञान-विलास नया, क्योकि बना है वन प्रान्तर में लक्ष्मण-राम-निवास वन-असीम का राज मिल गया, मिला विपिन-आवास छुटी सकुचित अवध, सुलोचनि, यह ससीम का त्रास गया नया, नया, । २०५