पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/२०१

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तृतीय सर्ग परछाई , ३५ बनी कनी तुम नेह-सिन्धु की, नयन-बिन्दु की तुम झॉई, पूर्ण इन्दु की आभा तुम हो, मम स्वरूप की लगन अटपटी तुम मम हिय की, सकरुण माया, मेरे निर्गुण तत्व-ज्ञान की तुम मोहिनी सगुण छाया, मम गायन की सुश्रुति-रूपा,- तुम हो बनी विकम्पिन-सी, ठिठकी-सी, स्वर अरुझानी-सी, झिझकी-सी, विस्तम्भित-सी । तुम मेरी मयी, तुम मेरी जीवन-प्रहेलिका, सूझ-बूझ नित ज्ञान मयी, तुम तत्वार्थ-दीपिके मेरी, योग-मयी, तुम ध्यान-मयी, मेरे जीवन की गहराई- अतल - वितल - पाताल तुम सुमिरिनी बनी हो मेरी सस्मृति-माल नयी, तुम रानी ऊम्मिले, बनी हो-- अति तन्द्रिता तुम हो उषा, तुम्ही प्राची की- हो प्रमुदिता दिशा मेरी । तुम मम निशा मेरी, १८१