पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१८५

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तृतीय सर्ग प्रो ऑसू, ३ ढरका दो, अपनी कुछ बूंदे, मेरी सूखी स्याही कुछ कम्पन पदा कर दो मम गाथा मन-चाही में, आज वेदना की प्रणोदना का, हृदयगम तत्व करो, मेरे शब्दो मे अपना तरल निजत्व भरो, श्री अम्मिला और लक्ष्मण के- श्री चरणो मे ढरक पडो, करुण प्रसाद प्राप्त करने को उन से तुम हठ कर झगडो । ४ ऊँची-नीची सहज कॅटीली- पथरीली वह पग-डण्डी, जहाँ पथिक का मान भेदती, विचरण करती वन-चण्डी, वही मार्ग-रेखा हुलसेगी- मृदुल पुण्य चरणाकन से, प्रबल प्रतापी निकलेगे अब वन को निज गृह ऑगन से लखन जायेगे- आज छोड अपनी नगरी, आज' अवध विधवा होगी, औं' सधवा होगी वन-डगरी । सीता, राम, १७१