पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१७५

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द्वितीय सर्ग अँधेरे की भी श्यामा छटा, गुंथ गई ज्योति-पुज के सग, अँधेरा और उजेला मिला- दिखाने लगा रास-रस-रंग, अंधेरे की परछाई पडी, उजेले के वक्षस्थल बीच, अात्मवत् करने को, सुप्रकाश,- अंधेरे को ले आया खीच, उषा, सन्ध्या, निशीथ, मध्यान्ह,- पूर्व निशि समय, पूर्व दिन काल, अपर निशि काल, अपर दिन काल, नृत्य करके हो गए निहाल । (१००) मिल रहा उस "भविष्य' मे "भूत", पकड कर “वर्तमान" का छोर, "अाज", बन रहा “अतीत" पुनीत, "प्राज" में उलझी "भावी"-डोर, दूर भावी, अति विगत अतीत,- लिए लघु वर्तमान का सग,- रास की क्रीडा करने लगे, उठी विप्लव की सतत उमग, प्रेममय नियम शृङ्खला बँधे, कर रहे कौतुक रास-विलास, जुड गई एक शृङ्खला जहाँ कहाँ फिर प्रलयोद्भव का त्रास ?