पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१६८

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ऊम्मिला (८५) प्यास की हाहाकार पुकार, वासना का उत्तप्त बुखार, मोह, मद का वह मदिर खुमार, उपेक्षा का अति शीत तुषार,- लय ये सब एकाएक, मिट गए मात्रास्पर्श अनेक, छिड गई साम्य-गीत की टेक, जग गया उनका विमल विवेक, निम्नगा वृत्ति हुई म्रियमाण, ऊर्ध्व-आकृष्ट हो गए प्राण, हुए रज-तम के कुण्ठित वाण, हो गया लखन-म्मिला त्राण । (८६) नही मृग-तृष्णा का आक्रोश, नहीं लिप्सा की कोई चाह, नही बलबले, न अन्धा जोश, न दाह, न आह, न डाह अथाह । न तडपन कोई बाकी रही, न कोई बाछा रही अजान, न कोई बात कही-अनकही, न मान, न शान, न स्नेहाज्ञान , लखन-उर मिली विमल ऊम्मिला, ऊम्मिला-हिय लक्ष्मण मिल गए, योग कुछ ऐसा आकर मिला कि दोनो हिय मिल-मिल हिल गए। १५४