पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१६४

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ऊम्मिला (७७) प्रेम की पार्थिवता की परिधि-," अपार्थिव केन्द्र-बिन्दु बन गई, स्थूलता के स्वरूप की रेख,- सूक्ष्म कण बन-बन, छन-छन गई, व्यक्तिगत मत सनेह-स्वभाव, सूक्ष्म बन अणु-अणु मे रम गया, ऊम्मिला-लक्ष्मण का चिर नेह, खिल उठा होकर अनुपम नया, प्रम ही प्रेम अनन्त, अपार, प्यार का उमडा पारावार, हुआ उनके जीवन में रुचिर शान्ति, नीरवता का संचार । प्रेम की प्रारम्भिक लघु सरणि, बन गई सिन्धु अपार, अथाह, न उस मे रहा प्रवाह-विकार, न रही चलित गति की कुछ चाह, एक गम्भीर प्रशान्त सुघोष, एक गति निश्चल, स्थिरतामयी, चण्ड बडवानल सयत हुआ, मिली सामर्थ्य-गहनता नयी, कभी यदि हुआ वीचि-विक्षोभ, रहा फिर भी वह सयमबद्ध, नही अतिलघित छुट गए हृदय-विकार निषिद्ध । रेखा हुई,