पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१६३

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द्वितीय सर्ग संसीम, चरमता मे है निर्गुण सत्य, विविधता का न वहा लवलेश, एक है, वाँ अनेकता नहीं, नही है काल, नही है देश , चरमता है नितान्त निस्सीम, कहो फिर किसको लाँघे कौन ? नही हे वाँ आकाश न है वॉ शब्द, न है वॉ मौन, पूर्णता वहाँ अनिर्वचनीय, वहाँ है प्यार, अपार, अशेष, द्वैत की दुविधा वहाँ न शेष, विरह का वहाँ न क्लेश विशेष । (७६) सगुण तुलना का फैला यहाँ, चरमता के इस पार, प्रसार, बड़े झगडे दुलार, दुत्कार, विचार , विकार, ससार, असार, ऊम्मिला-लक्ष्मण इस के पार- गए थाम अविद्या से तर मृत्यु-विकार, कर रहे है वे अमृत-विहार, प्रबल हृदयान्दोलन का भाव, बन गया स्थिरता का प्रतिरूप, प्रगति बन आई अगति स्वरूप, बन गई अचल अगति गति-रूप। सनेह-पतवार, १४६