पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१५९

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द्वितीय सर्ग पार,-देखो बनी हो आराधना-विभूति मिले, तुम मेरी इस बार, अये, गड जाओ हिय मे इसी- भॉति लज्जा-नौ की पतवार, लाज की नैया डगमग हिले, कॉपती तुम मेरी पतवार, लगाओ इसी रीति से पार, बह रहे है हम-तुम मॅझधार, वह सुन्दर, दूर, झिलमिलाता, कॅपता, वह पार सुलोचनि, पहुँचा दो तुम वहाँ, पूर्णता की बरसा दो धार ।" (६८) हो गए यो कह लक्ष्मण मौन, नेत्र उनके कुछ-कुछ मिल गए, म्मिला के वे चुम्बित ओप्ठ, 'लजाए-से कुछ-कुछ हिल गए मिल गए दो प्राणो के स्रोत, हिल गए दो आबद्ध किवार, खिल गए दो फूलो के गुच्छ,, मिल गए वीणा के दो तार, म्मिला के नयनो से बही प्रेम-यमुना की गहरी धार, लगे उतारने लक्ष्मण सुभट थाम उनकी ग्रीवा का हार । ' १४५