पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१४१

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द्वितीय सर्ग 7 7 क्षुब्धता भगी, जगी नव-प्रीति, रीति रति की परिचालित हुई पुराने पत्ते सब गिर गए, नई कोपल से कलिया चुई , हुई वे रग-राग में मस्त, ठगी-सी जो थी अब तक म्लान सारिका अभिसारिकानुकूल- गा उठी नव संजोग का गान तान पर तान छिड़ी सब ओर, निराशा का निशान्त हो गया, ऊम्मिला लक्ष्मण का सब कष्ट मृदुल वन-विहार मे खो गया । (३२) कल्पने, जब यह सुन्दर रास, छा रहा था वन मे सब ओर , तभी ऊम्मिला वधू के नैन, बन गए लक्ष्मण के चित-चोर , बहुत धीरे-धीरे से, किन्तु, बहुत चतुराई से वे चले- चुराने पिय के हिय की राशि सजग से बे लोचन अति भले , कुटी उनकी हो गई निहाल, किया दोनो ने उपवन-बास, चलो, कल्पने, देख ले उन्हे, मिटे जीवन का दारुण त्रास १२७