पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१३४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ऊम्मिला (१७) कुरगम कूदो, खेलो खेल, हरिणियो, नाचो अपना नाच , देखती हो क्या कौतुक-भरी- ऊम्मिला के लोचन नाराच ? करो तुम मत कुछ चिन्ता, अरी, न होगी तुम अब उन से बिद्ध , सुलक्ष्मण को कर के आबद्ध, हो गया उनका जादू सिद्ध , विशिख वे बडे तीक्ष्ण है, किन्तु,लक्ष्य तो है उनका उस ओर,- जहाँ धनुधारी लक्ष्मण वीर बाँधते है निज धनु की डोर । (१८) कोकिले, नव वसन्त आ गया, हो रहा वृक्षो मे रस छेड दो कुहू कुहू की तान, फैल जाए वन मे उल्लास , होड बद जाय, इधर अम्मिला, उधर कोयल त, बोली बोल , आज अम्बर से गगा बहे, अरी, सुस्वर की मिश्री घोल , श्रवण जुड जॉयें, नयन उड जॉयें, तान का तारतम्य बँध जाय, लखन की हिय डाली पे आज ऊम्मिला कोकिल-सी सध जाय । रास, १२०