पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१३२

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ऊम्मिला (१३) "लखन, तुमको होता है डाह, ऊम्मिला के दुलार को देख ? याद है तुम्हे ? चन्द्र से अधिक- प्रियतरा होती उसकी रेख , बहू यह मेरी रानी बडी, प्यार करने मे मुझे न लाज , द्वेष मत करो, सुनो, हे वत्स, मूल धन से है प्यारा व्याज ।" ऊम्मिला सुन श्वश्रू के वचन लाज से गोदी में गड गई, और व्रीडा की लोहित कान्ति कपोलो पर आकर अड गई। (१४) "लड गई फिर अँखियाँ वे चार, बचा कर मा के दोनो नैन , प्रोष्ठ दोनो के चारो हिले,- किन्तु निकला न एक भी बैन , छके वृद्धा के लोचन युग्म,- प्रणय का यह आवेग निहार , सुमित्रा हुई धन्य, अति धन्य, देख लज्जा पारावार, चुराकर, चुपके-चुपके, लखन- नेत्र-षटपद् मॅडराने लगे, ऊम्मिला के कपोल अरविन्द, मन्दगति से इतराने लगे । का