पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/१२१

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द्वितीय सर्ग ? (११६) शान्ता रिपुसूदन क अभिमुख हो कर बोली यो सकुचा कर, "भाभी से तुम बहुत कर चुके बात, क्यो न ? अब जाप्रो बाहर, मै भी तनिक देर इन से कुछ कर लू श्रुतिकीरति की बाते, रिपुसूदन भागो, सुन उसकी बाते तुम हो सकुचा जाते ।" (१२०) तब दोनो ने घुल-घुल अपने-अपने मन की गॉळे खोली, भौजाई-नॅनदी के धीमे स्वर की गूंज उठी मृदु टोली , बोली शान्ता "अये, ऊम्मिले, तुम ने तो दो दिन के भीतर, अपनी मृदुता से प्लाबित कर दिया हमारा यह सुन्दर घर । (१२१) भातु सुनयना की गोदी में बोलो, क्या कुछ आकर्षण है अथवा उन के पय मे होता क्या आत्मा का सघर्षण है ? क्या है ? कुछ तो कहो,बतायो,क्या तुम सब को खीच रही हो? अपने नेह-सलिल से कैसे यो धर-घर को सीच रही हो? (१२२) तव दर्शन कर अवध नारियो का मानस कृतकृत्य हुआ है, उनके हिय मे वत्सलता का एक अनोखा नृत्य हुआ है मै सुन आई हूँ, घर-घर मे सब कर रही तुम्हारा गायन, भाभी, तुम्हे देख क्यो सबकी आँखो से बरसे है सावन (१२३) सुन कर अपनी ननंदी ये वचन, ऊम्मिला सकुच गई यो, नव दुलही प्रिय-दरस-परस से हो जाती है छुई-मुई ज्यो, इस कोमल सकोच-भाव पर हुई निछावर शान्ता देवी, विमल सलज्ज भाव बन कर आ गया मृदुल चरणो का सेवी । 21 १०७