पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/११७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सर्ग (६६) ऐसा महाप्राण दानी, जो जड को भी चैतन्य बना दे, ऐसा नीरव गायक, जो जड शब्दो को भी धन्य बना दे , वन्य प्रान्त मे, गृह-ऑगन मे जिसकी गति सब देश-काल मे, वह है कौन ? कला का पूजक ! अमृन-पुष्प परमेश-माल मे । (१००) ललित कला' मै क्या जानूँ सत्-चित्-सुन्दर-स्वरूप-अभिव्यजन ? अणु-अणु मे, रज के कण-कण मे, रमा हुअा है अलख निरजन ।” "भाभी," कम्पित, तन्मय, पगले रिपुसूदन बोले स्नेहादृत- "तुमने कला-ज्ञान की सीमा को भी किया विशेष अनादृत ।" (१०१) "लल्ला, पगले भी उतने हो, जितने हो तुम बड़े सलौने, ऐसी बाते करते हो तुम जैसी करते है लघु छौने , क्या है कला ? आध्यात्मिकता को है वह समाधि-तन्मयता, वह है एक ऊर्ध्व गति, वह है इस मृण्मयता की चिन्मयता। (१०२) कविता कब उद्गीरित होती ? कब चलती कठिनी बरबस-सी? कब तूलिका नाच उठती है, मानो कठपुतली परवश-सी ? मुझे बताओ, रिपुसूदन, क्या सदा भाव-सकेत तुम्हारे- बिना बुलाए, अतिथि सदृश, आ जाते नही हृदय के हारे ? (१०३) कवि कब कहता है ? केवल तब जब साधनालीन होता है, एक जाल मे बिधा हुआ जब स्पदित एक मीन होता है, प्राण सिमिट, मिट, निठुर लेखनी की जिह्वा मे आ जाते है, मसि-भाजन में अहकार धुल जाता, भाव निखर आते है ।