पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/११६

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ऊम्मिला (६४) वन्दन की शत श्रद्धाजलिया अलख-चरण में चढ जाती है, कढ आती है एक आह, औ' अर्चन-सरिता बढ आती है , कुछ भावाभिव्यक्ति बरबस ही ऐसी घडियो मे हो जाती, अतिपूरित जलराशि यथा, बन सरिता, सागर में खो जाती। अपने आप हाथ चलते है और तूलिका पन्थ दिखाती, मदमाती आँखे प्रेरित हो चित्रकला का सूत्र सिखाती, एक-एक रेखा म तत्मय अर्पण-रस घुलने लगता है । जगता है सुषुप्त अभिव्यजन, हिय बरबस डुलने लगता है । (६६) हुआ अनिल-आन्दोलन एक कि नचने लगती पत्ती-पत्ती, हुआ हृदय व्याकुल कि जल उठी नव भारती-दीप की बत्ती, भावोन्मेष न कह कर आता है, लल्ला, हुद्वाम तुम्हारे, ना जाने, कब, किस क्षण आकर वह कर देता वारे-न्यारे । (६७) नाच-नाच उठते है पागल-से ये कवि गण ताली देकर, मानो आत्मार्पण को जाते है ये हिय की डाली ले कर, खोते है अपना अस्तित्व, न भौतिकता की चाह उन्हे है, वह क्या है? तुम तनिक कहो,किस अग्नि-शिखा का दाह उन्हें है ? (61) चाह कौन सी उनके हिय में? कौन लगन लग रही उन्हे वह ? रह, रह, लल्ला, कौन नचाती है उनको पागल-सा अह-रह मूर्तिकार कैसा जादूगर जो प्रस्तर में प्राण फूंक दे ? वह क्या है जो जीवित कर दे शिलाखण्ड को, एक हूक दे ? ?