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सुमित्रा, कौशल्या, और विशेष कर लक्ष्मण और अम्मिला के मनों पर क्या प्रभाव पड़ा, वे जन घटनाओं के प्रति किस प्रकार प्रतिकृत हुए, आदि का वर्णन ही इस ग्रन्थ का विषय बन गया है। इस मे जो कुछ कथा भाग है वह गृहीत है-वर्णनात्मक, अर्थात् घटना-विवरणात्मक नहीं। गुरु मुनिश्रेष्ठ मैंने राम वनगमन को एक विशेष रूप मे देखने और उपस्थित करने का साहस किया है। राम की वन यात्रा, मेरी दृष्टि में एक महान् अर्थपूर्ण आर्य-सस्कृति-प्रसार-यात्रा थी। “उर्मिला” मे लक्ष्मण के मुख से जो यह बात मैंने कहलवाई है, वह कदाचित पुरातन विचार वादियों को न रुचे । पर, जितना भी मैं इस राम वन-गमन पर विचार करता हूँ उतना ही मैं इस बात पर दृढ होता जाता हूँ कि राम की वन-यात्रा भारतीय सस्कृति-प्रसारार्थ, एक महान् यज्ञ के रूप मे थी। मैंने ऊर्मिला को 'जनकनदिनी' कहा है । कुछ मित्रों ने मुझे बताया कि अम्मिला जनकदेव के अनुज साकाश्या के राज कुशध्वज की पुत्री थीं। इस के सम्बन्ध मे मैंने वाल्मीकि रामायण देखी। उस से मुझे ज्ञात हुआ कि सीता और अम्मिला - दोनों जनकदेव की ही पुत्री थी। वाल्मीकि मे श्लोक आते है कि जनकदेव ने रघुकुल के वशिष्ठ को सम्बोधित करते हुए कहा- सीता रामाय भद्रं ते ऊम्मिला लक्ष्मणायच । वीर्यशुल्कां मम सुतां सीतां सुरसुतोपमाम् ॥ द्वितीयामूर्मिला चैव त्रिददामि न संशय । -मैं बडी प्रसन्नता के साथ अपनी दो पुत्रियो मे से वीर्यशुल्का तथा देवकन्या सदृश सुन्दरी सीता, राम को, और दूसरी कन्या अम्मिला, लक्ष्मण को दे रहा हूँ । यह बात मैं दृढ़ता के साथ तीन बार कहता हूँ। आगे चल करके आदि-कवि ने महामुनि विश्वामित्र के, मुख से राजा जनक को सम्बोधित करते हुए कहलाया है कि- वक्तव्यं च नरश्रेष्ठ श्रूयता वचन मम । भ्राता यवीयान धर्मज्ञ एष राजा कुशध्वज ।। यस्य धर्मात्मनो राजन् रूपेणाप्रतिमं भुवि । सुताद्वयं नरश्रेष्ठ पल्यथे वरयामहे ।। .