६३
वेब में रख लिया। दिन भर कार्य की अधिकता के कारण मुझे उसकी याद ही न रही।
शाम को जब मैं भोजन करके सेटा तो क्रम-कम से से दिन भर की घटनाओं पर विचार करने लगा। एकाएक मुझे उस लिफाफे की याद श्रा गई। मैंने विस्तर से उठकर कोट के जेब से लिफाफा निकाला और ची से धागे को कार कर सावधानी से खोला, देखा तो उसमें किसी सो के लिखे हुए कुछ पत्र थे। उत्सुकता और बढ़ी। मैंने पों को तारीख वार पढ़ना प्रारम्भ किया । पहला पत्र इस प्रकार था।
शान्ति-सरोवर
रे देयता!
मुझे मालूम है कि श्राप मुझसे नाराज हैं। थोड़ा मो नहीं यहुत अधिक। यहां तक कि आप दो अक्षर लिख कर अपना कुशल-समाचार देना भी उचित नहीं समझते । आपको इस नाराजी का कारण भी मुझ से छिपा नहीं हैं।
मैं ही जानती हूं कि किन परिस्थितियों में पड़ कर में प्रापको श्राज्ञा का उल्लघंन कर रही हूं। यदि आप मेरे स्थान पर होते तो आप भी यही करते, जो में करती हूं।
अन्त में मैं प्राप से यही निवेदन करती हूं कि श्राप मुझ से नाराज न हों। अपने कुशल-समाचार का पत्र भेज- कर भनुग्रहीत करें।