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बिन्दो का चेहरा खिल उठा, पर यह प्रसन्नता क्षणिक थी। वह गम्भीर होकर बोली—
"नहीं,म न पहिनगी गहने गरीबों के लिए नहीं होते।"
राय साहब बोले—"गहने तो गरीब-अमीर सभीके लिए होते हैं। फिर तुम्हारी तरह का गरीब तो इच्छा करते ही मनमाना गहना पा सकता है।"
"सो कैसे"? बिन्दो ने पूछा—"गहनों की इच्छा तो मुझे सदा से रही है, पर वे मुझे कभी नहीं मिले और न जीवन भर मिलेंगे, यह में अच्छी तरह जानती हू।"
राय साहब धीर धीरे बिन्दो की तरफ आते हुए बोले—"जीवन भर की बात तो अलग रही बिन्दो। यह कंठी तुम्हें इसी समय मिल सकती है, केवल तुम्हारी इच्छा करने भर की देर है। तुम्हारे ऊपर एक क्या, ऐसी लाखों कठिया निछावर की जा सकती हैं। पर बिन्दो यदि तुम भी मेरे मन की समझती!"
रायसाहब के आरक्त चेहरे को और हिंसक पशु की तर आँखों को देखते ही बिन्दो सिहर उठी और दो कदम पीछे हट कर बोली—"आप मुझे दवा दिलवा दें, मैं जाऊं अम्मा अकेली हैं।" उसने इन बातों को इतने जोर-जोर से कहा जिसमें अन्दर आवाज पहुँच सके।
वह शीघ्र ही दवा लेकर घर लौटी। उसने मन ही मन सोचा अब में वहा दवा लेने न जाऊंगी, रायसाहब की नीयत ठिकाने नहीं है। मैंने समझा था कि वह बेटी समझ कर मुझे कंठी देना चाहते हैं, परन्तु वे तो सतीत्व के माल उसे बेचना चाहते हैं। चूल्हे में जाय ऐसी कंठी; मुझे न चहिये विधाता! सतीत्व