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स्वजातीय होने के कारण कभी कभी तिथि-त्यौहार या काम-काज होने पर कोठी से विन्दो की मां के लिए बुलाया पाता और मां के साथ बिन्दो मी जाया करती। यहां रायसाहब की लडकियों को खूब सजीवजी देखकर, उनके चमकते हुए हीरे-मोती के गहने और दृष्टि को फिसला देने वाले रेशमी कपडों को देखते ही यह और अधिक क्षुब्ध हो जाया करती, विशेष कर इसलिए और भी, कि राय- साहब की लड़कियां सुन्दर न थी; गहने-कपडे उनके शरीर पर ऐसे जान पडते जैसे ये किसी ठूठ के साथ लपेट दिये गये हों। विन्दो की राय थी कि अच्छे कपडे और गहने पहिनने का अधिकार उन्हीं को होना चाहिये जो सुन्दर हो। कुरूप स्त्रियों का श्रृंगार तो श्रृंगार का उपहास और कला का अनादर है। रायसाहय की लडकियों से गहने- कपडे की प्रतियोगिता में हारकर विन्दो हताश न होती; घर लौटते ही वह शीशे में अपना सुन्दर मुँह देख कर मन ही मन उनके प्रति कहती-"गहना-कपड़ा पहिन कर भी तो उनका काला मुंह गोरा नहीं हो जाता; बहे पड़े दांत मोतियों सरीखे नहीं चमकते"। फिर यकायक यह दीर्घ निश्यास के साथ शीशे के सामने से दूर चली जाती, मानो यह सोचती कि विश्व के सारे सौंदर्य की वस्तुएं केवल उसी के लिए बनाई गई थी, किन्तु निर्माता को भूल से वह उनसे दूर रखदी गई है। रायसाहय की लडकियों के पास तो वे सौन्दर्य वर्धक वस्तुएं अनावश्यक ही हैं, जिनसे उन लडकियों के सौंदर्य को वृद्धि तो नहीं हो पाती, हां उन वस्तुओं का सौंदर्य अवश्य घट जाता है। परन्तु पिन्दो को एक भाशा थी। यह सोचती थी