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"उसने आज ही अनुभव किया कि विवाह के बाद स्त्री कितनी पराधीन हो जाती है। उसे पति की इच्छाओं के सामने अपनी इच्छाओं और मनोवृत्तियों का किस प्रकार दमन करना पड़ता है।"

इस अनुभव के प्रति उसका असंतोष और उस अशान्ति-जनित उसके इन कातर उद्गारों को पढ़िए—

"हे ईश्वर! तु साक्षी है। यदि मैं अपने पथ से तनिक भी विचलित होऊँ तो मुझे कड़ी से कड़ी सज़ा देना। पतिप्रत धर्म, स्त्री का धर्म तो यही है न कि पति की उचित- अनुचित आज्ञाओं का पालन किया जाय। वही में कर रही हूँ विधाता! पर इतने पर भी यदि मेरी दुर्बल आत्मा अपने किसी आत्मीय के लिए पुकार उठे तो मुझे अपराधिनी न प्रमाणित करना।"

[पवित्र ईष्या]

ऐसी परिस्थितियों में पड़ी पत्नी के जीवन का चित्र देखिए:—

"मायके आने की भी अब मुझे विशेष उत्सुकता न थी। अब तो किसी प्रकार अपने दिन काटने थे। न तो जीवन में ही कुछ आकर्षण था और न किसी के प्रति किसी तरह का अनुराग शेष रह गया था; पर काठ की पुतली की तरह सास और पति की आज्ञाओं का पालन करती हुई नियम से खाती-पीती थी, स्नान और श्रृंगार करती थी और भी जो कुछ उनकी आज्ञा होती उसका पालन करती।"

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