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और श्रोचे हृदय का समझने लगा। उसे ऐसामालूम हुना कि
कुसुम यहुत ऊंचे से-किसी दूसरे लोक से-योल रही
है जिसे वसंत कुछ समझ सकता है और कुछ नहीं।
इसके बाद घसंत और कुसुम के बीच में इस विषय
में फिर कभी कोई बात न हुई । किन्तु; वसंत श्रय भी समझा
ता है कि कुसुम का तर्क सत्य नहीं है, किसी सुकवि की
कल्पना की तरह यह सुन्दर ज़रूर है, पर उसमें सचाई नहीं
है । परन्तु इस प्रकार के विचार पाने पर वह स्वयं अपनी
श्राखों से नीचे गिरने लगता है, उसके कानों में बार-बार
कुसुम के यह शब्द गूंजने लगते हैं-"क्या प्रेम का अन्त
कहानियों की तरह विवाह में ही होना आवश्यक है?"। -----