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गया। यसन्त जाकर उसी ड्राइंगरूम में बैठ गया जहां यह बहुत बार कुमुम के शिक्षक के रूप में बैठ चुका था। इन चार घी में कुसुम और यसन्त के बीच किसी प्रकार का कोई पत्र व्यवहार नहीं हुया था और न उन्हें एक दूसरे के विषय में कुछ मालूम था। बसन्त सोच रहा था कि इतने दिनों के बाद कुसुम न जाने किस भाव से मिलती है, कैसा स्वागत करती है, उसका पाना उसे अच्छा भी लगता है कि नहीं फौन जाने ? इतने ही में एक सफेद, बिना किनारी की, खादी की साड़ी पहिने कुमुम ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया। वसंत ने बड़े ही नम्र भाव से उठकर श्रभिवादन किया। "क्यों क्या कुसुम को इतनी जल्दी भूल गये जो अपरिचित की तरह शिष्टाचार करते हो, बसन्त यावू ?" कुसुम ने हल्की मुस्कुराहट के साथ कहा । वसन्त का ध्यान इस पोरन था, वह चकित दृष्टि से कुसुम के सादे पहिनावे को देख रहा था। सौभाग्य के कोई चिट्ठन थे। न ता हाथ में चूड़ी और न माथे परसिन्दूर की बिन्दी। विधाता! तो क्या कुसुम विधवा होचुकी है ? किन्तु वसंत का हृदय इस बात वो मानने के लिए तैयार ही न होता था।

"क्या सोच रहे हो यसन्त चावू ?" कुसुम ने फिर पूछा। संत जैसे चौंक पड़ा, योला-"कुछ तो नहीं वैसे ही मैं देख रहा था कि

कुसुम ने यात काट कर कहा- श्राप मेरी तरफ देख रहे होंगे किन्तु इसके लिए क्या किया जाय, विधि के विधान को कौन टाल सकता है?"

यसम्त को मालूम हुआ कि विवाह के दो ही वर्ष याद युसुम विधवा हो गई। उसके पिता भी उसे अहट सम्पत्ति