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सोच रहा था । वसन्त कुसुम से दूर, दूर रहने की सोचने लगा किन्तु ज्योंही शाम हुई वह अपने आप को रोक न सका। निकला तो वह टहलने, लेकिन टहलता हुआ कुसुम जा पहुंचा।

जब वह कुसुम के घर पहुंचा तो कुसुम वहाँ न थी यह ड्राइंग-रूम में बैठ कर एक पलयम के पन्ने उलटने लगा। उसकी दृष्टि एक चिन पर जाकर एकाएक रुक गई। यह यड़ी देर तक उस चित्र को ध्यान पूर्वक देखता रहा । उसका सिर चित्र के ऊपर झुक गया और साथ ही आँसू की दो बड़ी पड़ी बूंदै गिर पड़ी। वसन्त जैसे सोते से जाग पड़ा हो । इसने झट से जेव से स्माल निकाल कर चित्र पर की आंसू को बूंदें पोछ दी। और उसी समय उस की नजर सामने लगे हुए बहे श्राइने पर पड़ी, कुसुम उसके पीछे चुपचाप खड़ी थी, उसकी आँसें सजल थीं। बसन्त कुछ घवराला गया, कुसुम पास की एक कुरसी खींच कर बैठ गई। थोड़ी देर तक दोनों ही चुप चाप रहे, अाखिर कुसुम ने ही कुछ देर के बाद निस्तब्धताको भंग करते हुए कहा "वसन्त यावू, अब तो बहुत देरी हो चुकी है।" वसन्त ने कहा, "जो कुछ हुश्रा ठीक ही हुना है।" इसके बाद मिल्टन की एक पोयम की कुछ पंक्तियां जो कुसुम न समझ सकती थी बसन्त ने उसे समभाई। यसन्त अपने घर गया और कुसुम अपने पिता के साथ हवानोरी के लिए।

[ ५ ]

गर्मी की छुट्टी में वसन्त को एक ताल लिफाफे में कुसुम की शादी का निमंत्रण पत्र मिला, और कुछ दिन याद उसने यह मुना कि कुसुम का विवाह एक धनीमानी ज़िमी.