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कदाचित् जीवन की अन्तिम श्वासे गिन रहा था। उस समय न तो कुल की मान-प्रतिष्ठा का ध्यान रहा, न किसी के भय का; और न यही ध्यान रहा कि इतनी रात को लोग मुझे बाहर देखकर क्या कहेंगे। चौकीदार मेरी आज्ञा का उल्लंघन कैसे करता? फाटक खुलवाकर मैं बाहर निकल गई। पास पहुँच कर देखा, कुन्दन ही था। आह ! यही अपने माता पिता का दुलारा कुन्दन, अपने मित्रों का प्यारा कुन्दन, जिस का कुम्हलाया हुआ मुख देख कर कितने ही हृदय सहानु: भूति से द्रवीभूत हो उठते थे, जिसके इंगित मात्र पर परि चारक वर्गसेवा के लिए प्रस्तुत रहता था, आज वही कुन्दन जीवन के अन्तिम समय में अकेला और असहाय शून्य दृष्टि से आसमान की ओर देख रहा है। मुझे देखते ही जैसे उसमें कुछ शक्ति आगई हो। यह क्षीण स्वर में बोल उठा, "हीना रानी, अच्छा हुआ जो तुम आगई। थोड़ा पानी पिलादो मैं बहुत प्यासा हूँ" मैंने पानी के लिए चारों तरफ नज़र दौड़ाई थोड़ी दूर पर नल तो था पर वरतन कोई न था जिससे मैं उसे पानी पिलाती। सोचा घर तक जाऊं, पर घर जाने का समय न था।नल पर से साड़ी का छोर पानी से भिगो कर लौटी, परन्तु अब वह पानी मांगने वाला इस संसार में था ही कहां?

बस मेरी या उसकी कहानी यही है।

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