सदा यही अनुभव करती कि जैसे मैं बन्दी हूँ और यहां ज़बरदस्ती पकड़ कर लाई गई हूं।
इस ऐश्वर्य की चकाचौंध और विभूतियों के साम्राज्य में भी मैं अपने बाल-सखा कुन्दन को न भूल सकी। मायके को स्वच्छन्द वायु में कुन्दन के साथ का खेलना, लड़ना, झगड़ना और उसकी बाँसुरी की ध्वनि मुझे भुलाने से भी न भूलती थी। क्षण भर का भी एकान्त पाते ही बचपन की सुनहली स्मृतियाँ साकार बन कर मेरी आँखों के सामने फिरने लगतीं, जी चाहता कि इस लोक-लज्जा की जंजीर को तोड़कर मैं मायके चली जाऊँ। किन्तु इसी बीच छोटे भाई के पत्र से मुझे मालूम हुआ कि कुन्दन घर छोड़कर न जाने कहां चला गया है, उसका कहीं पता नहीं है। इसलिए मेरी कुछ कुछ यह धारण हो गई कि अब इस जीवन में कैदखाने से निकल कर भी कदाचित मैं कुन्दन को न देख सकूंगी। मायके जाने की भी अब मुझे उत्सुकता न थी, अब तो किसी प्रकार अपने दिन काटना था। न तो जीवन से हो कुछ आकर्षण था और न किसी के प्रति किसी तरह का अनुराग ही शेष रह गया था, पर काठ की पुतली की तरह सास और पति की आशयों को पालन करती हुई नियम से खाती पीती थी, स्नान और श्रृंगार करती थी और भी जो कुछ उनकी आज्ञा होती उसका पालन करती।
इसी समय एक ऐसी घटना हुई जिससे मेरी सोई हुई। स्मृतियां फिरसे जाग उठी,मेरा उन्माद और बढ़ गया। एक दिन दोपहर के बाद मैं अपने छज्जे पर खड़ी हुई अन्यमनस्क भाव से बाहर सड़क पर से आने जाने वालों को देरा रही थी।