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से दो बातें भी न करने दो और भक-भक कर हवाके साथ उड़ चली।

[३]

में ससुराल आयी । बड़ी भारी कोठी थी। बहुत सी दास-दासिया थीं। यहां का रंग ही दूसरा था। पति देव को अग्रेजियत अधिक पसन्द थी। उनकी रहन सहन, चाल ढाल बात-व्यवहार सभी साहवाना थे। वह हिन्दी बहुत कम होता करते ओर अंग्रेजी में समझती जरा कम थी, इसलिए उनकी बहुत सी बातों में प्रायः चुप रह जाया करती। उनके स्वभाव में कुछ रूखापन और कठोरता अधिक माना में थी। नौकरों के साथ उनका जो वर्ताव होता उस देखकर तो में भय से सिहर उठती थी।

वे मुझे प्राय रोज शाम को और कभी सवेरे को अपने साथ मोटर पर बैठा कर मीलों तक घुमा लाते, अपने साथ सिनेमा और थियेटर भी ले जाया करते, किन्तु अपने इस साहब बहादुर के पार्श्व। में बैठकर भी में कुन्दन को न भूल सकती। सिनमा की तस्वीरों में रेशमी कुरता और धोती पहिने हुए मुझे कुन्दन की ही तस्वीर दिखाई पड़ती।

पति का प्रेम में पा सको थी या नहीं यह में नहीं जानती, पर में उनसे डरती बहुत थी। भय का भूतरात दिन मेरे सिर पर सवार रहता था। उनकी साधारण सी भाष भगी मी मुझे कंपा देने के लिए पर्याप्त थी। वे मुझ कभी भाराज न हुए थे किन्तु फिर भी उनके समीप में .