और साथ ही ऐसे श्रादर्श पात्र के श्रादर्शवादी,
धर्मोपदेशक जनक से ऊब कर हम कह उठते हैं-
"Te kaoty not what to do with this small and nosy
moralist who is inlabıtıog one corner of a great and
good pan'
हमें यह देखकर संतोप और सुख होता है कि
प्रस्तुत कहानियों के पात्र ऐसे नहीं हैं। प्रमोद, विनोद,
कुन्दन, विमला, वजांगना इत्यादि के चरित्र चित्रण में
कुमारी जी ने मनुष्य-स्वभाव की अवहेला नहीं की है। घे
प्रकृति के नियमों को स्थगित या परिवर्तित नहीं करतीं। वे
पार्थिव जीवन का कम भंग नहीं करती। अपने पात्रों के चरित्री
को सर्वत्र नियंत्रित, विनियत और सम्पूर्ण व्यवस्थित कर
मानव-क्षेत्र को संकुचित और संकीर्ण नहीं बना देती । न तो
वे इन पात्रों में, किसी धर्म-धुरीण और सुजन-शिरोमणि
का ही चिन खींचती हैं, और न अधमाधम नारकीय पिशाच
F.F.. लिये, न तो वे
गुणों के कोप
रिघ के दोपों
को पराकाष्टा पर पहुंचाने के लिए, दानव थौर दैत्यों
के गैरवीय दुष्कर्मों की सूची ही छान डालती हैं। वह तो
छाया, चिम्दो, योगेश, अखिलेश, चैरिस्टर गुसा, मिस्टर मिश्रा
श्रादि सभी पात्रों को उनके घास्तविक रूप में सजाकर
उपस्थित करती हैं। वे सभी मानव-गुण-विकार सम्पन्न हैं। वे
जीते-जागते इसी जगत के जीव हैं। उनमें मानवीय जीवन
का अनवरुद्ध प्रवाह हो रहा है। प्रत्येक के चरित्र में वास्त
विक जीवन का अप्रतिहत श्राफर्षण है। हम उस पात्र से तटस्थ
- G. K. Chesterton Simplicity and Tolstoj.