१४२ - उन्हें छाया पर भी ममता हो गई थी। उनका प्रोध महीने, डेढ़- महीने से अधिक न ठहर सका । यह समाज के पीछे थ्रपने प्यारे पुत्र को नहीं छोड़ सकते थे। हदय पहता था, चलो मना लामो; वेटा यात्म-अभिमानी है तो पिता को नम्र होना चाहिये, किन्तु श्रात्माभिमान पाकर उसी समय गला परड लेता, पुत्र के दरवाजे स्वयं उसे मनाने के लिये जाना उन्हें अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल जान पडता। फिर पुन पुन ही तो है, यदि घही पिता के पास तक पाजाय तो क्या उसकी शान में फर्क ना जायगा ? सारांश यह कि चन्द्रभूषण और सुमित्रा श्रय यहू बेटे के लिये व्याकुल होते हुए भी उन्हें बुलान सके। एक दिन एक व्यक्ति ने श्राकर कहा कि प्रमोद बहुत दुयला हो गया है, और कुछ धीमार-सा है। माता का हृद्य पानी २हो गया। उसने उसी समय एक नौकर के हाथ कुछ रुपये भेज कर कहला भेजा कि प्रमोद श्राकर उनसे मिल जाय । रुपये तो प्रमोद ने ले लिए क्योंकि उन्हें श्रावश्यकता थो, परन्तु वह घर न जा सके। उन्होंने समझामांने पिता की चोरी से घर में घुलपाया है, इसलिए जिस घर में यह पैदा हुप, जहां के जलवायु में पलकर इतने बडे हुए उसी घर में चोर की तरह जाना उन्हें भाया नहीं । वह नहीं गए, जाना अस्वीकार कर दिया । इससे सुमित्रा को बड़ा दुख हुश्रा । वह उठते-बैठते चन्द्रभूषण से इस बात का अाग्रह करने लगी कि यह प्रमाद को स्वयं लेने जायं, उसे मनाने में उनकी प्रतिष्ठा न कम पड़ेगी। दशरथ ने बेटे के लिये प्राण दे दिये थे। यहां तो जरा से सम्मान की ही बात है। पिता का हृदय तो स्वयं ही पुत्र के लिये विकल हो रहा था। यह तो स्वयं चाहते थे। अब सारी जिम्मेदारी सुमित्रा के सर पर छोड़कर वह पुत्र को मनाने चले। रास्ते में सोचा -
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