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१४० हा, प्यास और तीव्र होती जान पडती। श्रानन्द और सुख से जलन की माना ही अधिमालूम होती। वह माता पिता के स्नेह के लिये अत्यधिक विफल रहते,किन्तु जय माता पिता ने ही उन्हें श्नपन प्रेम के पलने से उतारकर अलग कर दिया था तब स्वयं उनके पास जाकर उनम उनके प्रेम शोर दया की भिक्षा मागना प्रमोद के स्वाभिमानी स्वभाव के विरद्ध था। प्रमोद का स्वास्थ्य भी अब पहले जैसा न रह गया था। दुश्चिन्ताओं और आर्थिक कठिनाइयों के कारण वह बहुत दृश और विक्षिप्त स रहत । समाज में भी श्रय वह मान-प्रतिष्ठा न थी। हर स्थान पर उनके इसी विवाह की चर्चा सुनाई पडती। किसी को भी प्रमोद के केवल इस कार्य के साथ हीनहीं कि तु स्वयं प्रमाद के साथ भी किसी प्रकार की कोई सहानुभूति न रह गई थी। सालोग प्राय यही कहते कि "प्रमोद दोही तीन साल के बाद अपने इस कृत्य पर पडनायगा।" यह विवाह प्रमोद सरीखे विवेकी और विद्वान् युवक के अनुकूल नहीं हुआ"| "ठहरी तो पाखिर वेश्या की ही लडकी न? कितने दिन तक साथ देगी १ वेश्याए भी पिसी की होकर रही हैं या यही रहेगी ?" इस प्रकार न जाने कितने तरह के श्राक्षेप प्रमोद के मुनने में पाते। इन सब बातों को सुन सुनकर प्रमोद की प्रारमा विचलित-सी हो उठो उन्हें इन सव बातों का मूल कारण छाया ही जान पडती। यह सोचते, कहा से मेरी छाया से पहचान हुई १ न उससे मेरी पहचान होती और न विपत्तियों का समूह इस प्रकार मुझ पर हट पडता। वह अयछायासे कुलसिचे खिचे सेरहने लगे। उनके प्रेम में अपने श्राप शिथिलता श्रान लगी । छाया का मूल्य उनकी श्राखों में घटने लगा, पर प्रमोद स्वयं यह सब चाहते न थे। छाया में उन्हें वेश्या की लडकी होने के अतिरिक्त