१३७ यह एक कुल-वधू की ही तरह प्रमोद के इशारों पर नाचना चाहती थी। प्रमोद के नहाचुकने पर अपने हाथ से ही वह प्रमोद के कपड़े धोती, अभ्यस्त न होने पर भी दोनों समय प्रमोद के लिए वह अपने ही हाथ से भोजन बनाती और थाली परसने के बाद जब तक प्रमोद भोजन करते वह उन्हें पंखा झला करती । प्रमोद के भोजन कर चुकने के बाद उनकी झूठी थाली में भोजन करने में यह एक अकथ- नीय सुख का अनुभव करती थी। इसके पहले इस प्रकार काम करने का उसके जीवन में कभी थवसर न पाया था, किन्तु धीरे-धीरे उसने अपने श्रापको ऐसा अभ्यस्त कर लिया कि उसे कोई काम करने में कदिनाई न पड़ती। राजरानी को पुत्री की परिस्थितियों का पता लगता ही रहता था। वह सोचती कि मेरे साथ रहकर छाया यहां रानियों की तरह हुमत कर सस्तो थी; पडे-बडे विद्वान, राजा, रईस तक यहां बाके उसको कदमयोसी कर जाया करते; किन्तु उसको ता मति हो पलट गई है। अपने आपही उसने दासियों का सा जीवन स्वीकार कर लिया है। छाया को किसी प्रकार फिर से अपने चंगुल में फांस लेने के प्रयत्न में वह अय भी लगी रहती। यह सोचतो ऐश- श्राराम में पली हुई लड़की क्तिने दिनों तक फ्ट का जीवन विता सकेगी? कभी न कभी चेतेगो और थायेगी; किन्तु छाया! छाया तो माता के घर के पेश श्राराम को घृणा की दृष्टि से देखती थी। यहां यह इस कट में भी जिस सुप का 'प्रनुभव करती। उसकी आत्मा को जितनी शांति मिलती थी, उस रूप की हाट में उस वैभव की चकाचौंध में उसके शतांश का भी स्वप्न देखना छाया के लिये दुराशा मात्र थी। छाया प्रमोद के विशुद्ध और पवित्र प्रेम के ऊपर संसारको सारो विभूतियों
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