यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३२

सी लग गई । शीला शान्तिपूर्वक यह सब देख रही थी, किन्तु उस शान्ति के नीचे प्रचंड विपाद छिपा था। मुझसे उसके चेहरे की ओर नहीं देखा जाता था । मैं अपने भाईपन को मन-ही-मन धिक्कार रहा था। मेरे सामने ही मेरी बहिन की लुटिया-थाली नीलाम होने जा रही थी, किन्तु मैं कुछ कर न सकता था। खैर, उन सब वस्तुओं की एक सूची तैयार करके चपरासी सामान ठेले पर लाद कर ले जाने लगे। सामान में बच्चों की एक ट्राइसिकल भी थी। शीला फा यया ब्रजेश 'अमाली तायकिल' कहके मचल पड़ा। शीला कुछ भी न कह सकी, बच्चे को जबरन गोद में उठा कर वह दूसरी ओर चली गई।

सामान चला गया। मैंने अन्दर जाकर देखा, वह बैठी बच्चे को कुछ खिला रही थी। उसने मेरी ओर देखा, उसकी आँखे सजल थीं। मैंने सांत्वना के स्वर में कहा, 'बहिन, देशभक्तों की यही तो अग्नि परीक्षा है।

थोड़ी देर बाद उसकी कहानी लेकर मैं घर लौटा।

घर आकर मैंने वह कहानी पढ़ी और उसी प्रकार 'कल्पलता' के सम्पादक के पास भेजदी।

कहानी का शीर्षक था, "चढ़ा दिमाग" ।