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उसकी रचना के बिना उनका विशेषांक अधूरा ही रह जायगा; उस जैसी विदुषियों के सहयोग से वह कल्पलता के विशेषांक को सफल बना सकेंगे।

पत्र को उलट-पलट कर देखा, मालूम होता था, सम्पादक महोदय ने भूल से लिफाफे पर मेरा पता लिख दिया था, क्योंकि मैं भी कभी-कभी 'कल्पलता' में अपनी तुकबन्दियां भेज दिया करता था।

जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, मैं बहुत दिनों से शीला के घर न जा सका था और अब अकस्मात् ही यह पत्र उसे देने का प्रसंग आ गया, इसलिये दूसरे ही दिन प्रातः काल मैं उसके घर गया।

शीला का घर छोटा-सा था; और गृहस्थी भी थोड़ी- सी। घर में कोई पुरुष नहीं था, उसकी बूढ़ी सास थी और एक नन्हा-सा बचा था। ये शीला की ही संरक्षक्ता पर निर्भर थे। अपने पति की अनुपस्थिति में भी वह गृहस्थी को सुचारु रूप से चलाए जा रही थी। उसके इस असीम धैर्य और साहस की मैंने मन ही मन प्रशंसा की।

जब मैं वहां पहुंचा, वह आंगन में बैठी कुछ लिख रही थी। मैंने देखा, उसका छोटा सा बच्चा दौड़ता हुआ आया और किलकारी मार फर पीछे से उसकी पीठ पर चढ़ गया, साथ ही उसके लिखने में फुलस्टाप लग गया।

मैंने पूछा-क्या लिख रही हो?

"कल्पलता" के लिये एक कहानी लिख रही थी," वह मुस्कुरा कर बोली- "पर जब यह लिखने दे तब न?" उसने वाक्य को पूरा किया।