यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
११४

११४ दृष्टि में जैसे उसने कहा कि मेरी अंगूठी न भूलना, जरूर - दृढ देना। [ २ ] उसी चंच पर पडे-पडे मैंने रात काट दी। सवेरे चिडियों के चहचहाने के साथ हो उठ बैठा। अभी पूरा-पूरा प्रकाश भी नहीं हो पाया था। मैंने उत्सुक आखों को एक बार चारों तरफ अंगूठी के लिए घुमाया। किन्तु वह कहीं न दिखी। फिर मैंने झुक कर बैंच के नीचे देखा । नन्ही सी थगूठी जिसमें एक कीमती वडा सा हीरा चमक रहा था, बैंव के पाए से सटी पड़ी थी। मैंने झुक कर अगूठी उठालो । प्रयत्न करने पर भी वह मेरी सव से छोटी उंगली में भी न पाई। सब मैंने उसे जेब में रख कर नल पर जा कर हाथ मुंह धोया और फिर सिविल लाइन की ओर चल पडा । वगला ढूढने में मुझे विशेष प्रयत्न न करना पड़ा, क्योंकि प्रजागना ओर उसके पति प० नवलकिशोर जी दोनों ही नगर के लब्ध प्रतिष्ठ व्यक्तियों में से थे। चपरासी से मैंने श्रापना कार्ड अन्दर भिजवाया, जिसके उत्तर में स्वयं प्रजागना भाती हुई दिखी। और उस सादी सरलता की प्रतिमा बज गना के प्रथम दशन में ही में उसका भक हा गया। वह मुझे पदे आदर और प्रेम के साथ ड्राइंग रूम में ले गई । टेविल क पास पेटे हुए उसके पति श्रववार पढ़ रहे थे। उसने अन्दर जाने ही अपने पति का मुझसे परिचय कराया। फिर मेरो योर देखकर उसने पति से कहा- 'इनके विषय में ता में अधिक नहीं जानती। पर हा, इतना जानती हूँ कि कल प्रापन मर साथ अत्यन्त सजनता