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११० । एक बोली-यहा तो कोई पडा है जी। दूसरी ने कहा-ऊह ! रहने भी दो पडा है तो हमारा क्या कर लेगा। प्राश्नो जरा वेट लें फिर चलेंगे। तीसरी उठ कर खड़ा हो गई। स्वर पो कुछ धीमा कर के बोली- "हमारा कर तो पुच न लेगा पर हमारी यातचीत की श्राजादो में ता बाधा श्राएगी। चलो, कहीं और धैठे। इतमा घडा तो यगीचा पडा है। क्या यही जगह है? वह उठी। उठ कर जाने लगी। एक दूसरी ने उसका हाथ पकड कर खींचा। उसे बैठालते हुए बोली- "धैटो भी कहा जानोगी ? श्रय तो वह समय है, जय कि स्त्रियों का भी पुरुषों के समान अधिकार दिये जाने की हर जगह चर्चा है। फिर उस अधिकार का हमीं पयों न उपयोग करें? विरले ही पुरप स्त्रियों से ऐसे दूर दूर भागते हागे । श्रन्यथा पुरषों का ता स्वभाव हाता है जहा स्त्रियों को देखा फिर चाहे काम हो चाहे न हो उस ओर जायगे अवश्य । यह रलवे स्टेशन फा, स्नान घाटों का, सडको और दुकानों पर फा हमारा प्रतिदिन का अनुभव है। यदि ठीक न कहती हाऊं तो मेरी बात न मानो! और तुम एक ऐसे व्यक्ति स, जिसके विषय में ठीक ठोक पता भी नहीं कि स्त्री हे कि पुरुप, ऐसी दूर भागी जारही हो जेसे कोई सकामक बीमारी हा" कहत कहते उसने फिर उसका हाथ चेटालन के लिए सींचा। किन्तु वह वेठा तो नहीं, चिल्ला सी पडी- "छाड दो सरला 'तुम्हारे खींचने से मेरी अंगूठी