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१०६ यशोदा को पढ़ने लिखने की ओर से उतनी ही अरुचि थी, जितनी मेरी उस ओर रुचि थी। गृहस्थी के कामों में भी यह विशेष निपुण न थी। इसके अतिरिक्त न उस में रूप थानाकर्षण और न यात चोर का ढंग ही सुरचि के अनुकूल था। उसले साधारण सी बात करते समय भी मैं प्रायः झल्ला उठता जिससे मुझे तो मानसिक कष्ट होता ही, साथ ही यशोदा को भी बिना काररा हो मेरो डॉट सुननी पड़ती, और उसे भी कर होता। इसी लिये मैंने घर का जाना बहुन कम करदिया था। प्रायः जब मैं पढ़ने पढ़ते थक जाता तय मित्रों के घर, और जय किसी कारण्य मित्र लोग भी घर पर न मिलते तब मुझे कम्पनी चाग के इसी कोने में हरी हरी दूध पर ही पाश्रय मिलता था। कभी कभी उसी दूर पर पड़े पड़े में कर सो जाता, पता नहीं। पक्षियों का कलरव सुन कर हो मेरो प्रख खुलती । मेरे घर वाले मेरोइन बातों को बहुत अच्छी तरह जानते थे। अपने विवाह के बाद से मैं बहुत विद्रोही स्वभाव का हो उठा था। इस लिए न तो वे लोग मुझे खोजने का प्रयत्न करते. और न मेरी दिनचर्या या तपश्चर्या में ही थाधा डाल कर मुझे छेड़ते थे। ये जानते थे, कि यदि मुझे उन्होंने छेड़ा, तो इसका परिणाम किसी प्रकार भी अच्छा न हो कर, धुरा ही हो सकता है। भ्राज भी इसी प्रकार अपने जीवन से घबरा कर, न जाने किस विचार धारा में डूबा हुआ, मैं खान पर पड़ा था। वही युवतियां घूमती हुई फिर लौटी, और मेरे पास हो पड़ी हुई बेंच पर बैठ गई।