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१०७ इस से भी अधिक उद्विस और व्याकुल अवस्था में छटपटा रहा था। जीवन में मुझे उससे भी अधिक प्रारम-पलानि और व्याकुलता का सामना करता था कदाचित, इसालिए न जाने किस प्रकार कुछ अभिन्न हृदय मित्रों को मेरी मानसिक स्थिति का पता लग गया। वे मेरे श्रभिन्न हृदय मित्र थे ये जानते थे कि मैं इस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिये कड़ी से कड़ी विपत्तियों का भी झेल सकता हूं। इस लिए यह मुझे खोजते हुए आए, और मेरे साथ ही उन्होंने वहीं पर रात बिताई। इसके याद क्रमश: मेरी अवस्था कुछ सम्हली और पहुत कुछ तो मियों के प्राग्रह से, और कुछ कुछ किसी प्रकार जीवन के दिन फाट देने के लिये मैंने यशोदा को शिक्षिता बनाना चाहा। किन्तु परिणाम कुछ न हुा । क, मे कबूतर और ख, से परगोश, इसके धागे पशोदा न पढ़ सकी । उसे पढ़ने लिखने की तरफ जैसे रुचि ही न थी। पढ़ने के लिए जब मैं, उससे प्रेममय अनुराध फरता तो वह प्रायः यही फह के गल दिया करती कि-"अब मुझे पढ़ लिख के पया करना है ? क्या नौकरी करवायोगे? अपने प्रश्नों के उत्तर में, इस प्रकार की बातें सुन कर मुझे कितनी मार्मिक पीड़ा होती थी; मेरा हृदय कितना विचलित हो उठता था। यशोदा न तो समझती थी, और न उसने कभी समझने का प्रयत्न ही किया। परिणाम यह हुमा कि मुझे घर से बिल्कुल विरक्ति हो गई। कोई भी धाकर्षण शेष न रह जाने के कारण, मैं यहुत फम घर जाने लगा। महोने में एकाध बार ही मैं घर पर भोजन करता। यदि भोजन के समय किसी मित्र के घर होता तो उनके धाम में