यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१०६

1 नन्हें-नन्हें चांदनी के टुकडे जैसे मुझे बरबस छेड़ से रहे थे। मैंने आंखें बन्द फरली; किन्तु फिर भी किसी प्रकार की शान्ति लाम न फर सफा । श्राज मैं यहुत दुखी था। वैसे बात थी तो बहुत छोटी; किन्तु पके हुए घाव पर एक मामूली से तिनके का छू जाना ही बहुत है। छोटी सी यात पर ही मेरे हृदय में फितनी भीषण हलचल मची हुई थी, उसे मेरे सिवा कौन जान सकता था। इसी समय, कुछ युवतियां, मेरे पास से ही निकली। उनके पैरों के लच्छे और स्लीपरों की ध्वनि मैंने साफ साफ सुनी । वे लोग आपस में हंसती, खिलखिलाती, और याते करती हुई चली जारही थीं। ऐसा लगता था कि जैसे सांसारिक चिन्ताओं को इनके पास तक पहुँचने का साहस ही नहीं होता । परन्तु मुझे उनसे क्या प्रयोजन ? मेंने तो उनको श्रोर अांख उठा फर देखा भी नहीं । देख कर करता भी क्या ? व्यर्थ ही हृदय में एक प्रकार की टीस उठती । वेदना और बढ़ जाती। मेरे लिए तो कदाचित, विधाता ने अपने ही हाथों पफ निरक्षरा, और बेढंगी प्रतिमा का, निर्माण किया था जो इच्छा न होने पर भी, वरवस मेरे जीवन के साथ बांध दी गई थी, जिसके सहवास मे मेरामुखी जीवन, मेरा भाशायादी हृदय, कल्पना के पंखों दारा, ऊंची से ऊंची, उड़ान भरने वाला मेरा मन सभी दुख तथा घोर निराशा से न जाने कितनी भीपण वेदना का अनुभव कर रहे थे। जिस दिन मैंने पहले पहल यशोदा को देखा, मैं कह नहीं सकता कि मेरी मानसिक स्थिति कितनी भयंकर थी। वह रात-मिलन को पहिली रात-सुहाग रात थी। और मैं-मैं घर से भाग कर इसी स्थान पर ।