काम कर चुकने के बाद ज्ञान ( Consciousness ) होता है। कभी २ सङ्कल्प के कारण, जिसका ज्ञान हमें रहता है, ऐसा करते हैं। किन्तु यह सङ्कल्प अभ्यस्त होता है। अभ्यास पड़ जाने के कारण ही इस प्रकार का सङ्कल्प उठने लगता है, अविवेक रुचि के कारण नहीं। यह बात बहुधा उन लोगों में देखने में आती है जिन्हें बुरी लत लग जाती है। तृतीय तथा अन्तिम दशा वह है जब हमारा अभ्यस्त कार्य पूर्व की बहुधा बनी रहने वाली इच्छा के विरुद्ध नहीं होता है वरन् उस इच्छा की पूर्ति ही के लिये होता है। यह बात सन्त लोगों तथा उन मनुष्यों में देखी जाती है जो समझ-बूझ कर किसी निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति में बराबर लगे रहते हैं। आकांक्षा तथा इच्छा का यह भेद प्रमाणिक तथा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक बात है। किन्तु बात केवल इतनी है--हमारे संस्थान के अन्य सब भागों के समान आकांक्षा अभ्यास पर निर्भर है। जो वस्तु अब हमें स्वतः इष्ट नहीं रही है, हम उसकी आकांक्षा अभ्यास के कारण कर सकते हैं, या केवल इस कारण इच्छा कर सकते हैं क्योंकि हमें उसकी आकांक्षा है। यह बात बिल्कुल ठीक है कि आरम्भ में आकांक्षा पूर्ण रूप में इच्छा से पैदा होती है। इच्छा में कष्ट के प्रभाव से खिंचाव तथा आनन्द की ओर आकर्षण---ये दोनों बातें आगईं। उस आदमी को छोड़ दो जिसके दिल में ठीक करने की आकांक्षा ने पूरा आसन जमा लिया है। उस आदमी का उदाहरण लो जिसके अन्दर अभी इस प्रकार की आकांक्षा कमज़ोर हालत में है और जहां इस बात का खटका है कि कहीं प्रलोभन मिलने पर यह आकांक्षा नष्ट न होजाय। इस वजह से आकांक्षा पूर्ण रूप
पृष्ठ:उपयोगितावाद.djvu/९३
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९५
चौथा अध्याय