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चौथा अध्याय

ही चीजें इष्ट हैं---और कोई प्रमाण नहीं दे सकते और न कोई और प्रमाण देने की आवश्यकता ही है।

अब इस बात का निर्णय करना चाहिये कि क्या वास्तव में ऐसा ही होता है? अर्थात् क्या मनुष्य जाति केवल उसी वस्तु की कामना करती है कि जिससे उसको सुख मिलता है या दु:ख का अभाव होता है। प्रत्यक्ष ही में यह प्रश्न अनुभव का प्रश्न है। इस प्रकार के प्रश्नों का निर्णय साक्षी पर ही होता है। इस कारण यह बात जानने के लिये कि क्या वास्तव में वैसा ही होता है जैसा ऊपर वर्णन किया गया है, हमको अपने अनुभव तथा अपनी निरीक्षा ( Ovservation ) को काम में लाना चाहिये तथा दूसरों के निरीक्षण से सहायता लेनी चाहिये। मेरा विश्वास है कि यदि निष्पक्षपात होकर अपने अनुभव तथा निरीक्षण से काम लिया जायगा तो यह बात माननी पड़ेगी कि किसी वस्तु की इच्छा करना तथा उसे रुचिकर अनुभव करना तथा किसी वस्तु से घृणा करना और उसके कष्टप्रद होने की कल्पना करना--ये दोनों बाते--एक दूसरे से पृथक् नहीं की जा सकतीं। ये दोनों बातें एक ही वस्तु के दो रुख हैं या दार्शनिक भाषा में एक ही मनो-वैज्ञानिक घटना का नाम रखने के दो तरीक़े हैं। किसी चीज़ को इष्ट समझना ( उसके परिणामों के विचार से इष्ट समझें तो दूसरी बात है ) तथा उस वस्तु को सुखद समझना--ये दोनों--एक ही बात हैं। किसी वस्तु को सुखद न समझते हुवे उस वस्तु की इच्छा करना भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार से असम्भव हैं। यह बात मुझको इतनी साफ़ मालूम पड़ती है कि मेरे विचार में इस पर कोई भी आक्षेप नहीं करेगा। कोई आदमी यह