अर्थात् धर्म कार्य या पुण्य कार्य को अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता देने वाले पदार्थों में केवल सब से ऊंचा स्थान ही नहीं देते हैं वरन् उनका विचार है कि मनोविज्ञान के अनुसार प्रत्येक मनुष्य में इस प्रकार की भावना का होना सम्भव है कि वह नेकी या पुण्य को बिना किसी और उद्देश्य को ध्यान में रखते हुवे स्वत: अच्छा समझे। उपयोगितावादी लोगों का यह भी कहना है कि जब तक इस प्रकार की भावना नहीं पाती है अर्थात् मनुष्य नेकी को इस प्रकार प्यार नहीं करता है, उस समय तक उस मनुष्य का मस्तिष्क ही ठीक दशा में नहीं है। उस मनुष्य का मस्तिष्क उस दशा को प्राप्त नहीं हुवा है जिस दशा को प्राप्त होना सार्वजनिक हित की दृष्टि से अत्यावश्यक है। इस प्रकार की सम्मति सुख के सिद्धान्त के बिल्कुल भी विरुद्ध नहीं है। सुख के बहुत से साधन हैं। प्रत्येक साधन, केवल सुख-राशि बढ़ाने की दृष्टि से ही नहीं, वरन् स्वत: इष्ट है। उपयोगिता के सिद्धान्त का यह मतलब नहीं है कि कोई आनन्द जैसे गायन या दुःख से मुक्ति जैसे स्वास्थ्य केवल इस ही कारण इष्ट होने चाहिये क्योंकि वे किसी समष्टिरूप पदार्थ प्रसन्नता के साधन हैं। गायन तथा स्वास्थ्य स्वतः इष्ट हैं और होने चाहिये क्योंकि उद्देश्य के साधन होने के अतिरिक्त उद्देश्य का एक भाग भी हैं। उपयोगितावाद के सिद्धान्त के अनुसार नेकी या पुण्य स्वाभाविकतया तथा प्रारम्भ से तो उद्देश्य का भाग नहीं हैं किन्तु उद्देश्य का भाग बन सकते हैं। जो लोग नेकी को निष्काम रूप से प्यार करते हैं उन मनुष्यों के लिये नेकी उद्देश्य का भाग होगई है। ऐसे लोग अपने सुख का एक भाग समझने के कारण ही नेकी या पुण्य की आकांक्षा करते हैं। वे लोग नेकी को सुख का साधन नहीं समझते हैं।
पृष्ठ:उपयोगितावाद.djvu/८६
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८८
किस प्रकार का प्रमाण दिया जा सकता है