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उपयोगितावाद के सिद्धान्त की सनद


ऐसे काम को करने की कभी इच्छा नहीं करेगा जिस से उसके लाभ के अतिरिक्त और किसी का लाभ न होता हो। अब यदि हम मान ले कि एकता की इस भावना को धर्म के समान सिखाया आयगा तथा शिक्षा, संस्थाओं और लोक-मत से इस भावना को दृढ़ करने में यथासंभव सहायता ली जायगी जैसी कि किसी समय में धर्म के लिये ली जाती थी तथा प्रत्येक मनुष्य बचपन ही से इस भावना का प्रचार तथा कार्यरूप में व्यवहार देखेगा तो मेरे ख्याल में किसी मनुष्य को जो इस प्रकार की स्थिति की कल्पना को समझ सकता है सुखवादी सदाचार की अन्तिम सनद के काफ़ी ज़ोरदार होने में सन्देह नहीं रहेगा। आचार-शास्त्र के जिन विद्यार्थियों के लिये इस प्रकार की स्थिति को ठीक २ समझना कठिन मालूम पड़े उन्हें कान्ट की (System de Politique Positive) नामक पुस्तक पढ़नी चाहिये। जिन मनुष्यों की मानसिक भावनाएं उपयोगितात्मक प्राचार शास्त्र को मानने की ओर प्रवृत्त करती हैं उनको उस समय की प्रतीक्षा करते रहने की आवश्यकता नहीं है जब कि सामाजिक प्रभाव इस प्रकार के हो जाएंगे कि अधिकांश समाज इस सिद्धान्त को मानने की ओर प्रवृत्त होने लगेगा। समाज उन्नति की आधुनिक आदिम अवस्था में मनुष्य के दिल में दूसरों के प्रति सहानुभूति का भाव इतना गहरा नहीं हो सकता कि जनमाधारण के हित के विपरीत कार्य करना उसके लिये असम्भव ही हो जाय। किन्तु आधुनिक स्थिति में भी कोई मनुष्य, जिमके दिल में समाज के विचार ने कुछ भी स्थान जमा लिया है, यह नहीं ख्याल कर सकता कि शेष मनुष्य सुख प्राप्ति के उद्देश्य में मेरे प्रतिद्वन्दी हैं तथा मेरी उद्देश्य