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तीसरा अध्याय


बहुत अधिक विचार रखने लगेंगी। अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के समान ही दूसरों की भलाई का ध्यान रखना भी स्वाभाविक तथा आवश्यक प्रतीत होने लगेगा। अस्तु। चाहे मनुष्य में इस प्रकार की भावना कितने ही अंश में क्यों न हो, वह लाभ तथा सहानुभूति के प्रयोजन से इस भावना को प्रगट करने के लिये उत्तेजित होता है तथा यथाशक्ति दूसरों में इस प्रकार की भावना को उत्तेजित करता है। यदि किसी मनुष्य में इस प्रकार की भावना बिल्कुल भी न हो तो ऐसा मनुष्य भी यह चाहेगा कि अन्य मनुष्यों में इस प्रकार की भावना पैदा हो। इन सब कारणों से इस भावना का छोटे से छोटा अंकुर भी जड़ जमा लेगा तथा शिक्षा की बढ़ती के साथ २ विकसित अवस्था को प्राप्त हो जायगा। वाह्य ज़बरदस्त कारण (Powerful external sanctions) इस भावना का अनुमोदन करते रहेंगे। सभ्यता की बढ़ती के साथ २ मानुषिक जीवन को इस रूप में देखना अधिक स्वाभाविक प्रतीत होता जायगा। प्रत्येक राजनैतिक उन्नति के साथ २ अर्थात् हिन-विरोध के कारणों के दुर होने तथा क़ानूनी रियायतों के कारण फैली हुई भिन्न २ व्यक्तियों तथा भिन्न २ जमानों की आममानता को मिटाने से, जिम के कारण बहुत से मनुष्यों के सुख की उपेक्षा करना अब भी संभव है, उपरोक्त भावना को प्राकृतिक समझना और भी अधिक संभव होता जा रहा है। ऐसे प्रभाव बराबर बढ़ते जा रहे हैं जिन के कारण प्रत्येक में यह भावना कि मैं तथा शेष मनुष्य एक हैं जड़ जमाती जा रही है। इस प्रकार की भावना जब पूर्णता को प्राप्त हो जायगी तो मनुष्य कभी ऐसे काम नहीं सोचेगा या