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तीसरा अध्याय


सकता है इस विषय में सन्देह करना अनुभव के बिल्कुल विपरीत जाना है।

किन्तु मानसिक संस्कृति बढ़ने पर शिक्षा द्वारा उत्पन्न किये हुवे पूर्णरूप से कृत्रिम नैतिक भावों के (Aribitrary) प्रतीत होने पर उपयोगितात्मक कर्तव्य की भावना के धीरे धीरे लुप्त हो जाने की आशंका है। इस कारण ऐसे शक्तिशाली स्थायी भाव होने चाहिये जिनके कारण हम को कर्तव्य की भावना नैसर्गिक प्रतीत हो तथा इस स्थायी भाव को केवल दूसरों ही में नहीं वरन् अपने में भी बढ़ाने की ओर रुचि हो। सारांश यह कि उपयोगितात्मक प्राचार शास्त्र के लिये स्थायी भाव का भी एक नैसर्गिक आधार होना चाहिये।

इस प्रकार के प्राकृतिक स्थायीभाव का आधार है और वह दृढ़ आधार मनुष्य जाति की सामाजिक भावना अर्थात् मनुष्य को अन्य मनुष्यों के साथ सम्बद्ध रहने की इच्छा है। मनुष्य-प्रकृति में इस समय ही यह इच्छा बहुन अन्श में विद्यमान है तथा सभ्यता की बढ़ती के साथ २ स्वयमेव ही अधिकाधिक होती जाती है। मनुष्य को सामाजिक दशा इतनी अधिक प्राकृतिक तथा इतनी अधिक ग्वाभाविक प्रतीत होती है कि सदैव अपने आपको समाज का सभ्य ही समझता रहता है। असाधारण परिस्थितियों की या उस समय की और बात है जब कि मनुष्य किसी कारण से जान बूझ कर समाज से पृथक होने की चेष्टा करता है। ज्यूं २ मनुष्य बर्बर अनपेक्षता की दशा से दूर होता जायगा, सामाजिक बन्धन भी अधिक दृढ़ होता जायगा। अब देखना चाहिये कि मनुष्य किस दशा में समाज में रह सकते हैं। स्वामी और