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उपयोगितावाद के सिद्धान्त की सनद


आत्मगत भावना है। किसी मनुष्य का कर्तव्य के अनात्म सम्बन्धी (Objective) होने में ईश्वर के अनात्म-सम्बन्धी होने से अधिक विश्वास नहीं है। किन्तु फिर भी ईश्वर के विश्वास का पुरस्कार की आशा तथा दण्ड के भय की बात छोड़ कर चरित्र पर आत्मगत धार्मिक भावनाओं के द्वारा तथा उन्हीं के अनुसार प्रभाव पड़ता है। स्वार्थ-भाव से रहित होने की दशा में प्रमाणिकता का विचार बराबर मस्तिष्क में बना रहता है। किन्तु इन्द्रियातीत प्राचार-शास्त्रियों का ख्याल है कि यदि हम इस प्रमाणिकता का प्राधार मस्तिष्क से बाहर नहीं मानेंगे तो यह प्रमाणिकता कायम नहीं रहेगी। यदि कोई मनुष्य अपने दिल में कहने लगे कि जो चीज़ मुझे रोक रही है तथा जिसे मैं अपना अन्त:करण कहता हूं मेरे ही मस्तिष्क की भावना मात्र है तो यह नतीजा निकाल सकता है कि जब यह भावना नष्ट हो जायगी तो मैं उसके अनुसार कार्य करने के लिये वाध्य नहीं रहूंगा। इस कारण ऐसा मनुष्य अन्तरात्मा की उपेक्षा करने तथा उससे छुटकारा पाने का प्रयत्न करेगा। किन्तु क्या यह खतरा उपयोगितावाद तक ही संकुचित है। क्या नैतिक फ़र्ज़ या कर्तव्य का आधार मस्तिष्क से बाहर मान लेने के विश्वास से ही हमारी एतद् सम्बन्धी भावना इतनी दृढ़ हो जायगी कि फिर हम उससे छुटकारा न पा सकेंगे। किन्तु यह बात नहीं है। सारे आचार-शास्त्री इस बात को मानते हैं तथा इस बात पर खेद प्रगट करते हैं कि अधिकतर मनुष्य बहुत आसानी से अपने अन्त:करण को चुप कर सकते हैं। उपयोगितावाद को मानने वालों के समान वे मनुष्य भी, जिन्हों ने कभी उपयोगितावाद के विषय में कुछ नहीं सुना है,