शास्त्र का पालन करने में भी उपरोक्त प्रयोजन उतने ही पूर्ण रूप से तथा उतने ही ज़ोर से प्रवृत्त न करें। निस्सन्देह अपने भाइयों के प्रति प्रेम तथा सहानुभूति के भाव मानसिक विकाश के अनुसार कम या अधिक होंगे। नैतिक कर्तव्य निर्धारित करने की सार्वजनिक सुख के अतिरिक्त चाहे और कोई कसौटी हो या न हो, किन्तु यह बात निस्सन्दिग्ध है कि मनुष्य सुख चाहते हैं। सुख के पाने के लिये मनुष्य स्वयं चाहे कैसे ही काम क्यों न करते हों, किन्तु वे चाहते हैं कि दूसरे उनके साथ ऐसा व्यवहार करें जिससे उनके विचारानुसार उनके सुख की बढ़ती होती हो। दूसरों के ऐसे ही कामों की वे प्रशंसा करते हैं। अब धार्मिक उद्देश्य को लीजिये। यदि मनुष्यों को ईश्वर की नेकी में विश्वास है जैसा कि बहुत से मनुष्य प्रगट करते हैं तो उस मनुष्य को, जो सार्वजनिक सुख को कर्तव्य निर्धारित करके की एकमात्र कसौटी मानता है, इस बात में भी विश्वास करना होगा कि कर्तव्य ऐसा काम होना चाहिये जिसको ईश्वर पसन्द करता है। इस कारण पुरस्कार की आशा तथा दण्ड का भय चाहे शारीरिक चाहे नैतिक तथा चाहे ईश्वर की ओर से चाहे अपने भाइयों की ओर से ये सब बातें तथा साथ में बिना मतलब के दूसरों के प्रति प्रेम तथा सहानुभूति के न्यूनाधिक भाव जितने मनुष्य प्रकृति में होने सम्भव हों हमको इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य करने के लिये विवश करेंगे। शिक्षा तथा साधारण संस्कृति (Cultivation) ज्यूं २ इन उद्देश्यों की ओर अधिक झुकाती जायेंगी, ये सब कारण और भी अधिक ज़ोर से काम करने लगेंगे।
ये तो बाह्य कारण हुवे जो हम को इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य करने के लिये विवश करते हैं। अब प्रान्तरिक कारण