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उपयोगितावाद के सिद्धान्त की सनद


कतिपय परिणामों पर देते हैं तथा जब तक शिक्षा के सुधार से हम अपने भाइयों के साथ एकता के सूत्र में न बंध जायेंगे अर्थात् उनके सुख दुःख को अपना सुख दुःख न समझने लगेंगे तथा जिस प्रकार साधारण युवक जुर्म के भय से कांपता है उसी प्रकार अपने समान सर्व प्राणियों को समझना (आत्मवत् सर्वभूतेषु) हमारी आदत ही में दाखिल न हो जायगा। किन्तु ऐसी दशा को प्राप्त होने से पहिले उपरोक्त कठिनाई उपयोगिता के सिद्धान्त पर ही विशेष रूप से लागू नहीं होती है। जब कभी भी हम आचार विषयक कार्यों का विश्लवण करके उनको सिद्धान्तों का रूप देने का प्रयत्न करेंगे, यह कठिनाई उस समय तक सदैव उपस्थित रहेगी जब तक कि मनुष्यों का मस्तिष्क मूल सिद्धान्त को भी मूल सिद्धान्त के उपयोगों (Applications) के समान ही प्रमाणिक न मानने लगेगा।

उपयोगितावादी भी अपने सिद्धान्त की प्रमाणिकता के सम्बन्ध में प्राचार-शास्त्र के अन्य सम्प्रदाय वालों के बराबर ही सनद (Sanctions) दे सकते हैं। ये सनद या तो बाह्य हैं या आन्तरिक। बाह्य सनदों के सम्बन्ध में यहां पर अधिक विस्तार से लिखना आवश्यक नहीं है। ये बाह्य सनद ये हैं अपने भाइयों या ईश्वर को प्रसन्न करने की आशा तथा उनकी नाराज़गी का डर तथा अपने भाइयों के प्रति न्यूनाधिक अंश में प्रेम और सहानुभूति तथा न्यूनाधिक अंश में ईश्वर का प्रेम और डर जिसके कारण हम अपने स्वार्थ का विचार छोड़ कर ईश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करने की ओर आकर्षित होते हैं। प्रत्यक्ष में कोई कारण नहीं मालूम कि अन्य प्रकार के आचार शास्त्रों के समान उपयोगितात्मक आचार